सहकारिता का संक्षित इतिहास
वर्ष 1904 में सहकारिता ऋण समिति अधिनियम बनाकर सहकारिता के माध्यम से आसान शर्ताे पर कर्ज दिलवानें की शुरूआत की गयी जो भारतवर्ष में सहकारिता के क्षेत्र में पहला कदम था। इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रारम्भ में केवल दो प्रकार (शहरी क्षेत्रों एंव ग्रामीण क्षेत्रों) की समितियों का गठन प्रारम्भ किया गया । इस अधिनियम के पारित होते ही इसके प्राविधानों को त्वरित गति के साथ लागू करते हुए विभिन्न प्रान्तीय सरकारों द्वारा रजिस्ट्रार नियुक्त किये गये और सहकारिता के सम्बन्ध में प्रभावी कार्यक्रम लागू किये गयेे, जिससे आगामी वर्षो में सहकारिता के क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई। तत्पश्चात सहकारिता के कार्यक्षेत्र को और अधिक व्यापक बनाये जाने की दृष्टि से वर्ष 1912 में नया सहकारी अधिनियम बनाया गया । इस अधिनियम में शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में गठित की जाने वाली समितियों के अन्तर को समाप्त कर दिया गया तथा सहकारिता आन्दोलन के प्रसार को समुचित संरक्षण भी मिल गया एंव ऋण देनें के अतिरिक्त अन्य उद्देश्यों के लिए भी सहकारी समितियों का गठन सम्भव हो सका । सहकारी आन्दोलन में बहुमुखी प्रसार को दृष्टिगत रखते हुए वर्ष 1965 में उ0प्र0 में नये सहकारी अधिनियम का गठन किया गया। जो वर्ष 2003 तक उत्तराखण्ड़ राज्य में भी समान्तर रूप से लागू रहा।
वर्ष 2003 में उत्तराखण्ड राज्य द्वारा नया सहकारी समिति अधिनियम 2003 गठन कर लागू किया गया। साथ ही साथ राष्ट्रीय एवॅं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था के बदलते हुए परिवेश को दृष्टिगत रखते हुए उत्तराखण्ड राज्य द्वारा एक नया स्वाश्रयी ( आत्मनिर्भर ) सहकारिता अधिनियम 2003 का भी गठन कर लागू किया गया है । जिसमें सहकारी समितियों को राज्य सरकार एवॅं निबन्धक के नियन्त्रण से पूर्ण मुक्त करते हुए समिति को पूर्ण स्वायत्ता दी गई है। इस प्रकार स्वायत्त अधिनियम के अन्तर्गत गठित समितियों को राज्य की सहायता भी सामान्यतः उपलब्ध नहीं होंगी, समितियॉ अपना कार्य क्षेत्र एवं कार्य करने के लिये पूर्णतः स्वतन्त्र होंगी। वर्तमान में उत्तराखण्ड़ राज्य में उक्त दोनों अधिनियम समान्तर रूप से लागू हैं।
सहकारी समितियो को स्वायत्ता हेतु व उनमें राज्य सरकार के नियंत्रण को कम करने के उद्देष्य से संविधान संषाोधन (97) पारित किया गया है, उक्त के अनुसार राज्य सरकारो को भी सहकारी समिति अधिनियम में आवश्यक संषोधन करने होगे अन्यथा 15 फरवरी 2013 से सभी प्राविधान स्वतः लागू हो जायेंगे।
सहकारिता विभाग में चलायी जा रही योजनाओ का उदृदेश्य न केवल कृषकों को सस्ते ऋण की सुविधा उपलब्ध कराना है, वरन प्रदेश के विभिन्न अंचलों में ग्रामीण तथा शहरी जनता को समृद्विशाली बनाते हुए उनके स्तर को ऊंचा उठाना है । इन उद्देश्यो की पूर्ति के लिए सहकारिता विभाग द्वारा विभिन्न योजनाओं जैसे-सहकारी ऋण एंव अधिकोषण योजना, क्रय-विक्रय योजना, उपभोक्ता योजना, आदि कार्यान्वित कर सहकारी समितियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। विभाग में 10 जिला सहकारी बैंक एवं उनकी 235 शाखाओ द्वारा ऋण वितरण का कार्य किया जा रहा है। सहकारी समितियों द्वारा सस्ते ऋण की सुविधा उपलब्ध कराने एंव निर्बल वर्ग के लोगों को अंश हेतु ऋण देनें के अतिरिक्त कृषकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के संग्रहण एंव विपणन में सहायता करती है, और क्रय-विक्रय की व्यवस्था कर उत्पादकों को उनकी उपज का अच्छा मूल्य दिलाने में सहयोग प्रदान करती है । समितियां किसानों को कृषि कार्य हेतु रासायनिक उर्वरक एवं उन्नतशील बीजो का वितरण उचित दर पर प्रदान करती है, तथा उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं को भी उपलब्ध कराती है। यह विभाग ऐसी समितियों के लिए एक मित्र, विचारक एंव पथ प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है । उनके कार्यो में आवश्यक निर्देश देता है तथा पर्यवेक्षण करता है ।
उत्तराखण्ड में 758 प्रारम्भिक कृषि ऋण समितियां है, जिनको बहुद्देशीय स्वरूप प्रदान किये जाने हेतु प्रत्येक समिति पर एक गोदाम, एक दुकान एंव कार्यालय रखा जा रहा है । सहकारी समितियांे में कार्यरत कर्मचारियों में प्रशासनिक क्षमता बढाने हेतु सहकारी पर्यवेक्षकों, प्रारम्भिक कृषि ऋण समितियों में कार्यरत सचिवों एंव जिला सहकारी बॅैंको के सचिवों आदि के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी विभाग द्वारा सम्पन्न कराई जाती है ।
प्रदेश में अनुसूचित जाति एंव जनजाति के लोग है जिनके पास इतने साधन उपलब्ध नहीं है कि वे सहकारी ऋण संस्थाओं के सदस्य बनकर प्राप्त होने वाली आर्थिक सहायता से अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर सके । अतएव इस वर्ग के लोगों को सहकारिता की परिधि में लाकर उनका सामाजिक स्तर ऊंचा उठाने हेतु स्पेशल कम्पोनेन्ट प्लान तथा ट्राईबल सब प्लान के अन्तर्गत वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है ।
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